नवगीत
नीम की छाँव
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अक्सर शब्दों के शहरों में,
बसते छोटे गाँव.
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बस्ती के अंदर रहते हैं,
तुलसी और कबीर,
दीप सुनहरी दीवाली के,
फागुन और अबीर,
अडिग अभावों के दारुण कुछ,
महँगाई के पाँव.
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आषाढ़ी पर निर्भर रहते,
करजे-कपड़े-पेट
साँसों की आवाजाही में,
हवा स्वयं है जेट,
धैर्य बँधाती है बस जेठी,
बैठ नीम की छाँव.
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भूभल सोती है जमीन पर,
जल बिन तरसे होंठ,
मृगतृष्णा छत पर पसारती,
आँसू के घर मोंठ,
पैदल भाग रही दोचित्ती,
दौड़ रहे फिलपाँव.
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भारवि के उस महाकाव्य को,
पढ़ा धर्म का युद्ध,
धागा डाल रहे सूई में,
नक्के बैठे बुद्ध,
दास बनाए रखा जनम से,
मडुआ को डुमराँव.
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