नवगीत
मित्रो ! ‘कोरोना’ की बिछली यानि कि फिसलन में आजकल सभी साहित्यकारों के शब्द फिसल रहे हैं, मेरी लेखनी से फिसले शब्द:-
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अरे ! कोरोना ! तुझे नमस्ते
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खेत पके होंगे गेहूँ के
चले गाँव हम,
खटनी-कटनी-कटिया करने,
अरे ! कोरोना ! तुझे नमस्ते.
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शहर बंद है, बैठे-बैठे
तंग करेगी भूख-मजूरी,
तंग करेंगे हाथ-पैर ये,
सामाजिकता की वह दूरी,
ठेला पड़ा रहेगा घर में,
चले गाँव हम,
आलू-मेथी-धनिया करने
अरे ! कोरोना ! तुझे नमस्ते.
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छुआ-छूत सड़कों तक उतरी,
और चटखनी डरा रही है,
मिलना-जुलना बंद हुआ है,
गौरैया भी परा रही है,
शंका में जब मानवता है,
चले गाँव हम,
छानी-छप्पर-नरिया करने,
अरे ! कोरोना ! तुझे नमस्ते.
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मुँह पर मास्क लगा हर कोई,
साँसों की चिंता करता है,
स्वयं सुरक्षितता की खातिर,
आचारिक हिंसा करता है,
इन सामाजिक बदलावों से,
चले गाँव हम,
पटनी-पाटा-खटिया करने,
अरे ! कोरोना ! तुझे नमस्ते.
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स्वाभिमान की हम खाते हैं,
नहीं किसी की मदद चाहिए,
एक माह का राशन-पानी,
एक हजारी नगद चाहिए,
हम अपने मन के मालिक हैं.
चले गाँव हम,
बुधई-बुधिया-हरिया करने,
अरे ! कोरोना ! तुझे नमस्ते.
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31.03.2020
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शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ