नवगीत
अधिकारों का भोर
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रहते मत वैभिन्य निरर्थक,
वार्ता के संवाद.
माँगों के हर विज्ञापन का,
पीठ चढ़ा वैताल,
फैल गया है कुंठाओं का,
तर्कहीन शैवाल,
है हठता पर अड़ी हुई यह,
शाहिन की बकवाद.
अभिव्यंजन का बना हिमालय,
अधिकारों का भोर,
छिपी हुईं कुछ छद्म शक्तियाँ,
अजमाती हैं जोर,
चाह रही हैं हिल जाए कुछ,
संसद की बुनियाद.
जो भी मुख से शब्द निकलते,
लगते उलटे अर्थ,
ऐसे लोगो के आगे है
बीन बजाना व्यर्थ,
जो अपने हित की भाषा में,
करते हैं अनुवाद.
नहीं अटल है किसी बात पर,
अवहेलन का झुंड,
समाचार माध्यम को भी ये,
गिनवाता है मुंड,
कब तक होगा अंत? न निश्चित,
अनुप्रेरित प्रतिवाद.
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ