नर.मानव.जीवन
मानुष जीवन का अजब है खेल
खेल में पुरुष की बनती है रेल
मानव रिश्तें हैं सब पैसेंजर रेल
रेल को ईंजन बन सदा खीचें मेल
हर रिश्ते का होता है अलग डिब्बा
संबंधो से जुड़ता रिश्ते का डिब्बा
सबसे पहले होता है डिब्बा माँ का
माँ कहती मैंनें बेटा लाडो से पाला
गीले पर खुद वो सूखे पर सुलाया
विवाह उपरांत जो हो गया पराया
पत्नी के पल्लू के जो संग बंध गया
माँ को बीच अधर में ही छोड़ गया
दूसरा डिब्बा होता सुंदर भार्या का
पत्नी सोचे बेटा तो होता है माँ का
उसका जीवन व्यर्थ नष्ट कर दिया
सारे सपनों का अंत सा कर दिया
नित टोक टोक कर बदल हैं देती
कहतीं हैं पहले जैसे हो क्यों नहीं
मगरमच्छ समान होते उसके आँसू
पति को पूर्णता कर लेते हैं काबू
तीसरा डिब्बा होता है बाप श्री का
वो भी सोचे अब बेटा नहीं उसका
ससुराल पक्ष का ही कहना है माने
जिन्दा होते हुए भी कर दिए बेगाने
अगला डिब्बा होती भाई बहनों का
जिनके संग है बीता बचपन उसका
वो भी कहें भाई अब है नहीं उनके
वो भी निजस्वार्थों नहीं होते उसके
अगले डिब्बे में हैं सब बच्चे सवार
वो भी कहते पिता ने छोड़े मंझदार
जीवन की पूंजी उन पर हैं लगा दी
फिर भी नहीं होते बुढापे के साथी
अंतिम डिब्बे में है सब शेष सवार
यार दोस्त सगे संबंधी व रिश्तेदार
सभी के सभी होते हैं बहुत नाराज
कहते हैं सब यह तो जोरू गुलाम
आदमी मानव जीवन का यही सार
ताउम्र खी़चता है सर्वस्व अधिभार
खुश नहीं होते सब रहते हैं नाराज
मानवीय रिश्तों का यही है बाजार
सुखविंद्र सिंह मनसीरत