नर- नारी
नर -नारी
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सतत निर्झरिणी सी बहती हूँ
सबके ही दिल में रहती हूँ
नर की मर्यादा बन सजती हूँ
मैं नारी हूँ
पिता के आँगन की शोभा भी मैं
उनके दिल का आह्लाद भी मैं
किल्लोंले कर सबको रिझाती मैं
मैं नारी हूँ
थका हारा दिन बीते आता नर
प्यार का अंजन लगाती मैं
स्पर्श मात्र से थकान दूर भगाती
मैं नारी हूँ
कविता कामिनी बन बिराजती
नेह नित्य बरसायिनी मैं
अधरों की हँसी बन खिलती
मैं नारी हूँ
हर ताप से मन को मैं दूर करती
सारी व्यथा उसकी मैं हर लेती
छिपा आँचल में उसको मैं लेती
मैं नारी हूँ
डॉ मधु त्रिवेदी