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22 Mar 2024 · 1 min read

नर जीवन

हे मित्र ‘समय’ तुम रुको तनिक,
अब कुछ कर लेना बाकी है ।
मानव बनने में समय लगा,
नर जीवन जीना बाकी है ।।

जब कदम चल पड़े उत्तरार्ध,
चंचल मन क्यों तू विचलित है?
लेकर आता रवि तेज गगन,
अवसान भी उसका निश्चित है ।
बस वर्तमान में ही जी लें,
ना भूत-भविष्यत् की चिंता,
क्या अर्जित किया है अभी तलक,
क्या-क्या अब पाना बाकी है ।।

पाया ही पाया जीवन में,
खोने को कुछ लाया भी न था,
जो अब तक तूने पाया है,
बहुतों ने तो पाया भी न था ।
हॅंस-हॅंस जीना हर पल-क्षण को,
नीरस जीवन क्या जीवन है ?
सपनों के जाल बुने अब तक,
उनका सच होना बाकी है।।

आकृति-विहीन यह समय चक्र,
कब आता है कब जाता है,
आने की ना कोई आहट,
ना जाने की बतलाता है ।
जब चला जा चुका, पता लगा-
कर्तव्य तो तेरे भी कुछ थे,
जिस हेतु मिला यह नर जीवन,
वो काम तो सारा बाकी है।।

इस देश-धर्म-संस्कृति-समाज ने,
तुझपर जो उपकार किया,
अनुभाग अटूट रखा तुझको,
निज की अपनी पहचान दिया ।
जय जन्मभूमि-जननी तुझसे –
माना कि उऋण ना हो सकते,
ऋण उपकारों का जीते जी,
कुछ कम कर जाना बाकी है ।।

क्या मिथ्या धन, क्या है यथार्थ,
इसका अब तक कब ज्ञान रहा?
मन-मधुप खोजता कुसुमासव,
शुचि-पातक का कब ध्यान रहा?
नित अगणित किये कृत्य नूतन,
यह तुच्छ सम्पदा पाने को,
बस साथ चले जो जीवन के,
वह ‘अर्थ’ कमाना बाकी है ।।
– नवीन जोशी ‘नवल’ ,
बुराड़ी, दिल्ली

(स्वरचित एवं मौलिक)

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