नयी भोर का स्वप्न
नई भोर का स्वप्न
रात्रि का अवसान हुआ
गहरी का ली चादर ओढ़े
रात ने धीरे से चांद के माथे को चूमा और कहा,
लो अब मै विदा लेती हूं।
जाते जाते सिर्फ यही कहना है
तुम गलत नहीं थे, कहते थे
मेरा साथ एक सपना था ।
अब बीते सपने में दिख रही
एक बार फिर आशा की किरण
दूर पहाड़ के पीछे सूरज की
आहट सुनने लगी हूं।
आशा की अरुणिमा से सजा
आकाश प्रतीक्षारत है उस
प्रकाश को गोद में भरने को
जिसे बंद आंखों से नहीं
खुली आंखों में सहेजना है।
मेरा जाना बिछड़ना सही
पर सूरज के उजाले की
गुनगुनी धूप पसर कर
अपने आंचल में सभी के
लिए खुशियां ले आयेगी,
जिसने मेरे साये से लिपटकर
सिसक कर वक्त गुजारा था।
सुनते ही उमंग अपने हाथ में
सुनहरी रेत भरकर बोली
आओ तुम्हारा आचमन कर लूं।
स्वागत करें उस सुबह का
जिसके हाथ में ढेरों सपने हैं
एक सपना ऐसा भी होता है
जिसे कभी टूटने नही देंगे
वो नई भोर का सच्चा सपन होगा।