नया साहिल बनाना चाहता है समंदर क्या जताना चाहता है
नया साहिल बनाना चाहता है
समंदर क्या जताना चाहता है
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ग़ज़ल
क़ाफ़िया- आना, रदीफ़- चाहता है
वज्न- 1222 1222 122
अरक़ान- मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
बहर- बहरे हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़
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नया साहिल बनाना चाहता है
समंदर क्या जताना चाहता है
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चले है आसमां सर पर उठाकर
न जाने क्या ज़माना चाहता है
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सुलगते हैं कई अंगार दिल में
धुआँ आँखों में छाना चाहता है
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हवा में घुल रहा है ज़हर हर दिन
यहाँ अब कौन आना चाहता है
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अँधेरी बस्तियों का भी मुक़द्दर
सुनो अब जगमगाना चाहता है
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मेरे हिस्से की लेकर धूप सूरज
मेरे घर क्यों न आना चाहता है
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मिले हैं मुश्किलों से चार तिनके
परिन्दा घर बसाना चाहता है
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शजर बाक़ी न कोई इस चमन में
कहाँ गुलशन ठिकाना चाहता है
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राकेश दुबे “गुलशन”
08/11/2016
बरेली