” नयनों में ढलते दृग ” !!
है स्वार्थ की ,
दुनियादारी ,
पग पग पर ,
बैठे ठग !!
अपनों से ,
रिश्ते गहरे से ,
कहाँ नेह ,
मिलता है!
मुस्कानें बस ,
सौदाई हैं ,
हर कोई ,
छलता है !
घाव मिले जो ,
दिखा सके ना ,
दर्द सहे अपनी रग !!
परहित का अब ,
भाव कहाँ है ,
उठे कहाँ ,
हिलोर है !
अपना ही बस ,
भला चाहते ,
एक तरह का ,
शोर है !
विश्वासों के ,
पाये हिलते ,
नयनों में ढलते दृग !!
यहाँ सरलता ,
और सफलता ,
कहाँ साथ ,
चलते हैं !
यहाँ मित्रता में ,
भी अकसर ,
धोखे ही ,
पलते हैं !
बड़ा अनूठा ,
बड़ा निराला ,
लोग कहें इसको जग !!
स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )