— नफरत है तो है —
सख्त से सख्त नफरत है, ऐसे लोगों से जो अपने गुरु, अपने भगवान् , अपने गुरु ग्रन्थ साहब , अपनी भागवत गीता, अपनी रामायण, अपनी बाइबल, अपनी क़ुरान सब के आगे नतमस्तक होते है, और उस के बाद उनका वो स्वरुप देखने को मिलता है, जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती !
किसलिए करते हो यह सब, किस इंसान हो दिखाना चाहते हो ,तुम तो सरे आम उस को धोखा दे रहे हो, जिस का गुणगान अपनी जुबान से करते हो, किस बात का दान पुण्य कर के लोगों के बीच अपना नाम कमाना चाहते हो, क्यूँ सुबह शाम गुरबाणी ,रामायण का पाठ करते हो, सत्संग-कथा में जाते हो, सिर्फ और सिर्फ ढोंग करने के लिए जाते हो, अगर दिल में अपने भगवान्, अपने ईष्ट के प्रति ही सादर भावना नहीं है, तो किस काम की है तुम्हारी भक्ति ? भक्ति का सार तो तब समझ में आ जाता है, जब आप किसी भी सीधे सादे इंसान को धोखा दे देते हो, उस के प्रति आपके द्वारा किया गया व्यवहार ही यह दर्शाता है, कि आपके अंदर कितनी इंसानियत है !
आज का युग , कहीं से कहीं तक भक्ति-भावना का नजर नहीं आता है, और जो भक्ति-भावना से अपने प्रभु का गुणगान करता है, वो कहीं नजर नहीं आता, वो एकांत में रहकर, सादगी के साथ प्रभु की बंदगी कर लेता है, और दिखावा नहीं करता, वो तुम्हारी तरह ऐसी बातें नहीं करता, जैसे आपकी भावना दर्शा रही है, आपकी जिह्वा कहती है, मोह, माया को छोड़ दो, काम , क्रोध को छोड़ दो, निंदा को छोड़ दो, मेरा भी सवाल यही है, कि क्या आप यह सब छोड़ चुके है, या अभी छोड़ देंगे, या कितने वर्ष और लगेंगे छोड़ने में ? आप कथा करने आते है, आप लाखों रुपइया पहले ही जमा करवा लेते है, आप हवाई जहाज से आना पसंद करते है, आपने कौन सा त्याग किया, आप को तो मोह ने अपने वश में कर रखा है, फिर आप कौन से मोह की बात करते हैं, क्रोध आपका सत्संग – कथा करते हुए ही झलकने लगता है, आप के अंदर सहनशक्ति की कमी है, पर आप लोगों को उपदेश दे रहे है, आप उन लोगों को ज्यादा तवज्जो देते हैं, जिन्होंने वी. आई. पी. के तौर पर आपका सम्मान किया है, आप उनको वो प्रसाद देंगे , जो आम इंसान को नहीं दिया जाएगा, आप तो खुद ही नहीं सुधर पाए तो फिर किस बात की चर्चा के लिए आते हो ! सिर्फ अपनी प्रसिद्धि हांसिल करने के लिए आते हो, अगर आप ही नहीं बदल सके तो आप समाज को कैसे बदल सकते हो ?
नफरत भला क्यूँ न हो ऐसे लोगों से, जो होते कुछ नहीं, पर सारी भीड़ एकत्रित करके अपने प्रवचन की माला उनके गले में डालकर अपना उल्लू सीधा करके चले जाते हैं , और वो लोग वो ही करते है, जो देखते हैं, वो वह नहीं करते जो आपने कहा , हर इंसान समझता है , कि जब सत्संगकर्ता ही नहीं सुधर सका, तो हम क्या चीज हैं !
मन तो भटका रहे हो, मोह माया में, चले हो खुद को धर्मयोद्धा बनाने, तो सब कैसे संभव होगा, बहुत बड़ा त्याग करना पड़ता है, तब कहीं जाकर कोई एक उस तरफ पहुँच पाता है, जो धर्म के मार्ग पर सच्ची श्रद्धा से चले और दूसरों को भी चलाये !
आप अगर किसी को उपदेश दे रहे हो, कि भक्ति मार्ग पर चलो, तो कम से कम उपदेशकर्ता को भी तो इस लायक पहले बनना पड़ेगा, खुद के मुंह में तो राम नाम जुबान पर है, मन में कुछ और है, आँखे मटक रही है, दुनियादारी में, कितना चढ़ावा आया, कितने लोग आये, आज की मजदूरी निकल जायेगी, या आज अधर में सब लटक जाएगा, तो कहाँ से आएगा बदलाव, चाहे कितने सत्संग करलो, कथा कर लो, गुरुकी बाणी पढ़ लो, लाख दान-पुण्य कर लो, सब कुछ तब ही काम आएगा, जब खुद समझोगे, कि जो मैं करता आ रहा हूँ , वो सब गलत है ! बहुत सुधार की आवश्यकता है , पर बात तो तब है, जब सुधार हो जाए, अन्यथा यह भेड़चाल सदा यूँ ही चलती रहेगी, तुम सर उनके चरणों में झुकाते रहोगे, वो तुम्हारा फायदा उठाते रहेंगे ! तुम सोचोगे कीं आज तो मेरा मन निर्मल हो गया , वो सोचेंगे आज का दिन तो बड़ा बढ़िआ गया , झोली भर गयी ऐसी कल्पना भी नहीं की थी, पर असलियत क्या है, वो कथा से चले जाने के बाद निकल कर आती है, कि किस के हाथ क्या लगा !!
अजीत कुमार तलवार ,
मेरठ