नफरत के बीज
भौर हुआ
पक्षियों की चहक
सुबहा का होना,
मध्याह्न होना
संध्या लेकर,
सब ढल गई,
ये क्रियाशैली,
जिसे थका गई,
बिन स्वप्न
गहरी निद्रा लाई.
रोज रोज के चक्र,
निसर्ग ले आता,
मन को बहुत कुछ है भाता,
ये प्रक्रिया,
मुकाबले ले आई.
पानी की जरूरत,
जिससे बंधी है सूरत,
बर्तन भांडे भीड़े भई,
प्रकृति खुद देती.
और लेती है.
बस यही बात.
मन को नहीं पसंद,
नफरत के बीज,
बौने आई,
जानना है प्रवृति, मन की.
बांझ करे.
नफरत की जननी.
डॉक्टर महेन्द्र सिंह हंस