नन्ही भूख
एक नन्हा सा बच्चा था प्यारा प्यारा।
कुछ दूर खड़ा था भूखा थका-हारा।।
ना माँ का रहा साया ना था बाबा का।
बचपन से ही था वो नंगा बेसहारा।।
मेहनत कर रोज़ था कमाता खाता।
महामारी आयी,छीनी निवाला सारा।।
भूख से फूट फूट कर वह पड़ा रो।
मालिक भी ना दे सका उसे सहारा।।
सड़कें सुनसान थीं इस महामारी से।
सिसक रहा था वो पकड़े एक किनारा।।
शहर से जब निकाल दिया गया उसे।
पैदल चल पड़ा वो अपना गाँव दुबारा।।
रस्ते में जब नज़र पड़ी इस फरिश्ते पे।
बोला- ‘ले कुछ पैसे, कर ले गुज़ारा’।।
बोल पड़ा वो- ‘जी! मैं पैसे नहीं खाता’।
‘पैदा किये अनाज पे हक़ कहाँ हमारा’?
बोला मैं-‘दुकानों से कुछ ख़रीद तो लेना’।
बच्चा बोला-‘दुकानों से हूँ गया दुतकारा’।।
‘पैसे रहते हुये भी फटकारा गया कतारों से।
सच कहता हूँ ग़रीबी इस भूख का है हत्यारा’।।