नदिया के पार (सिनेमा) / MUSAFIR BAITHA
याद आ रहा है, जब सीतामढ़ी के बासुश्री टॉकीज में यह फ़िल्म लगी थी तो फ़िल्म के 25 वें सप्ताह के अंतिम दिन सिनेमाहॉल मालिक की तरफ से दर्शकों को एक मिठाई का डब्बा और रूमाल भी इस विशेष अवसर पर भेंट किया गया था।
1983 का कोई वक़्त था। तब नौवीं या दसवीं का छात्र था, छेहा गंवई था। देहाती किस्सों, किस्सों में पलने वाले किशोरवय से लगे जज्बात की एक समझ विकसित हो चुकी थी, उसमें जबरदस्त चाव जग चुका था।
तब अभिभावक से छुपकर ही सिनेमा देखता था। यह सिनेमा देखने किसी स्कूल साथी के साथ देखा था, सम्भवतः छुट्टी के दिन। और, देखने गया था हॉस्टल से ही। स्कूल (केंद्रीय विद्यालय, जवाहरनगर) के हॉस्टल में रहता था। स्कूल से सीतामढ़ी शहर की दूरी कोई 20 किलोमीटर थी। बस से जाने में यह दूरी एक घण्टे से ज्यादा में तय हो पाती थी, क्योंकि सड़क काफी खराब थी, गड्ढों वाली थी।
याददाश्त काफी खराब है।याद नहीं कि किन साथियों के साथ गया था। मगर यह याद है कि किसी साथी ने टिकट खिड़की पर किसी साथी के कंधा का सहारा लेकर टिकट कटाए थे।
गुंजा ने किरदार ने गहरे सम्मोहित कर लिया था! स्कूल के मेरे एक कक्षासाथी कमलेश झा पर तो गुंजा का नशा इतना सवार था कि वह क्लास की एवं स्कूल की लड़कियों में से कुछ को उनके पीठ पीछे गुंजा नाम से ही कई महीनों तक उपमित करता रहा, वह तो कुछ चिकने चेहरे वाले लड़कों को ही गुंजा कह कर चिढ़ाता था।
स्वाभाविक ही हर किशोर की जानिब अपनी भी चंदन की जगह होने की चाहत थी! फैंटेसी से इतर कहीं एक युवा दिल से नेह लगा भी बैठा था।
यह मूवी थियेटर और टीवी मिलाकर तकरीबन दस बार देख गया होऊंगा।
दूसरों को दिखाने के क्रम में भी कभी देख गया हूँ।
मेरे गाँव के एक चचा कहते हैं, वे लुधियाना ‘कमाने’ गए थे। वहीं थे तो शहर के किसी सिनेमाघर में यह फ़िल्म लगी थी। एक दिन बिहार के कुछ साथी प्रवासी मजदूरों के साथ फ़िल्म का कोई शो देख आए। देख क्या आए, नशा चढ़ गया। करीब 30 की उम्र थी उनकी। कह रहे थे, वे उस दिन से नदिया के पार का एक शो डेली देखने लगे जबतक की फ़िल्म पर्दे से हट न गयी। उनका कहना है कि कम से कम लगातार दो महीने तो हम वह फ़िल्म देखे ही होंगे।