नज़्म
बूढ़ा भी हो जाए शज़र तो, साथ छोड़ा नहीं करते,
बेइख़्तियार, नादार यारों से रिश्ता तोड़ा नहीं करते।
फ़ैसला जो कर लिया इक दफ़ा अपनी मंज़िल का,
करके शक अपनी काबिलियत पे, रुख मोड़ा नहीं करते।
ज़रुरी नहीं कि यहाँ हर कोई कद्रदान हो आपका,
दीवारों से लगाकर सिर अपना फोड़ा नहीं करते।
अपना मान लिया था जिसे, हमने कभी ख़ुदा
ईमां बदलने पर, शबीह उसकी तोड़ा नहीं करते।
बेदारों को भी लग ही जाती है ये दंश-ए-इश़्क,
फ़िराक़ के तर्स से दिल कभी थोड़ा नहीं करते।
न कर यहाँ महफ़िल में किसी पर ऐतबार ‘जूही’
बेग़ानों से इतनी जल्दी दिल जोड़ा नहीं करते।।
-©® Shikha