नज़्म – झरोखे से आवाज
झरोखे से आवाज
आजकल झरोखे से हवा बाहर जाती नहीं है।
हृदयगत भावनाएँ उथल पुथल मचाती नहीं है।
सड़क पर बैठकर बस, देख लेती है तमाशा,
अन्याय के खिलाफ आवाज उठाती नहीं है।
फिक्र है नहीं खुदा की खुदाई से क्या वास्ता,
दर्प में चूर ये सत्य को अपनाती नहीं है।
गर झूठ बोले तो वाह! वाही का नाद गुंजेगा,
यहाँ महफिल सच्चे तराने सुन पाती नहीं है।
मशाल जलाने की कहें तो यहाँ हाथ काँपते है,
अम्बर सी मेरे पास वो छाती नहीं है।
दुष्यंत जी ने कहा था चिंगारी ढूंढ लाने को,
मगर अब यहाँ तेल से भीगी हुई बाती नहीं है।
किसी और की क्या सोचें खुद भी सलामत कहाँ,
यही सोच हमारी जोखिम उठाती नहीं है।
इस गुलशन में हवा का रुख बदला सा लगे,
शायद अब कोई चमन ये महकाती नहीं है।
दूर क्षितिज पर एक असंभव का संभव होना,
ये इंसानी निगाहें वो असर देख पाती नहीं है।
खुद को बदला तो जग बदला “मुसाफिर”,
वरना ये भयानक रुत कभी जाती नहीं है।।
रोहताश वर्मा “मुसाफिर”