नज़्म/कविता – जब अहसासों में तू बसी है
जब अहसासों में तू बसी है,
तेरी ही मुझमें मदहोशी है,
कैसे कह दूँ के तू यहाँ नहीं है,
कैसे कह दूँ के ख़ामोशी है।
जब अहसासों में तू बसी है,
तेरी ही मुझमें मदहोशी है।
बारिशों की लय-तालों से,
लहलहाते पेड़ों की ड़ालों से,
झूमती-गाती ये हवा चली है,
प्रेम की फ़िर कलि खिली है।
जब अहसासों में तू बसी है,
तेरी ही मुझमें मदहोशी है।
अपने किस्से-कहानियों में,
मिलने की परेशानियों में,
जद्दोजहद छोटी है ना बड़ी है,
आसाँ सी लगती ये हर घड़ी है।
जब अहसासों में तू बसी है,
तेरी ही मुझमें मदहोशी है।
भले जहां में बहुत ख़राबे हैं,
इन तन्हाइयों में शोरशराबे हैं,
पुरवाई नहीं नासाज़ चली है,
प्यार की वो ही आग जली है।
जब अहसासों में तू बसी है,
तेरी ही मुझमें मदहोशी है।
बेजान सी कुलबुलाहटों से,
बिस्तर की इन सलवटों में,
जान जाओगे के नींद से ठनी है,
रात भर कोई कहानी बनी है।
जब अहसासों में तू बसी है,
तेरी ही मुझमें मदहोशी है।
(नासाज़ = प्रतिकूल, शिथिल)
©✍🏻 स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
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