नज़र-ए-मोहब्बत
ग़ज़ल…?
क्यों तुम मुझे देखकर कतरा रहे हो,
घबरा रहे हो के तुम शरमा रहे हो।
अपना बना के यूँ तुम नज़रें मिलाके ,
मुझको बता दो कहाँ तुम जा रहे हो।
मुझसे मुहब्बत नहीं है आपको गर,
क्यों सामने आके दिल धड़का रहे हो।
मुझसे जो कहना हो हाले दिल कहो तुम,
क्यों इस तरह से मुझे तड़पा रहे हो।
मेरी तरह क्या तुम्हें भी कु़छ हुआ है,
खुल के मुझे क्यों ना तुम बतला रहे हो ।
मेरी जहाँ में घना सा है अंधेरा ,
तुम ही नज़र रौशनी सी आ रहे हो ।
इस धूप में चमकती तो रेत भी है ,
टूटा हुआ आईना दिखला रहे हो ।
ख़ाली रहे मयकशी के थे जो प्याले ,
कैसे बिना तुम पिये बलखा रहे हो।
-प्रदीप राजपूत “चराग़”?
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