नज़र अपने
कैसे बचें कोई उन नजरों से
जो हर पल कमियां ढुंढते हैं
जब भी देखते हैं मुझको
बस उसी नजर से देखते हैं।।
होंठों को दांतों में दबाकर,
आंखों से तीर मारतें हैं
कभी हंसते हैं तो कभी ,
तना मुझपे कसते हैं
कैसे बचें कोई उन नजरों से
जो मुझमें हर दम कमियां देखते हैं।।
ओ नजर भी मेरे अपने हैं
उन नज़रों में मेरे ही तो सपने हैं
पराया भी कहना ठीक ना होगा
क्योंकि उन्हीं नज़रों के सामने,
ही तो हम दिन-रात रहते हैं।।
मेरे हर प्रतिक्रिया पे नज़र उनकी रहती हैं
दूर रहूं या पास,हर पल निगाहें ,
मुझपे आके रूकती हैं
कैसे समझाऊं उन नज़रों को,
जो मुझमें कमियां देखते हैं
जब भी मुझको देखते
सिर्फ उसी नजर से देखते हैं।।
नीतू साह(हुसेना बंगरा)सिवान-बिहार