नज़रों ही नज़रों में मुहब्बत सी हुई जाती है
नज़रों ही नज़रों में मुहब्बत सी हुई जाती है
ख़ामोश हैं लब यारब क़यामत सी हुई जाती है
भटकते हुये भी देख तेरे शहर में आ पंहुचे
जैसे मिरे खुदा की हिदायत सी हुई जाती है
जो आसपास था उसे फ़ुर्सत से देखा मैंने
फ़िज़ाओं की धुन्ध भी नियामत सी हुई जाती है
मुझसे पूछे बग़ैर मेरे फ़ैसले होते रहे
ये ज़िंदगी भी कोई अदालत सी हुई जाती है
हिस्सा रखते हैं जो सिर्फ़ दौलत और प्यार में
हर उस शख़्स से मुझे ख़िलाफत सी हुई जाती है
कोई समझे खता तो समझे मगर मैं समझती हूँ
उसकी मुहब्बत में इबादत सी हुई जाती है
किसी एहसान के बदले मिली है दुआ भी ‘सरु’
इंसानियत भी यहाँ सियासत सी हुई जाती है