नज़रिया।
कदम-कदम पे ये ज़िंदगी भी,
करती है क्या-क्या इशारे,
नज़र में हो जो नज़रिया अगर,
तो नायाब हो जाते हैं नज़ारे,
जब फूटन लगते हैं होंठों से,
अपने हंसी के फव्वारे,
तब फूटने लगते हैं ज़िंदगी से,
सारे ग़मों के गुब्बारे।
कवि-अंबर श्रीवास्तव।
कदम-कदम पे ये ज़िंदगी भी,
करती है क्या-क्या इशारे,
नज़र में हो जो नज़रिया अगर,
तो नायाब हो जाते हैं नज़ारे,
जब फूटन लगते हैं होंठों से,
अपने हंसी के फव्वारे,
तब फूटने लगते हैं ज़िंदगी से,
सारे ग़मों के गुब्बारे।
कवि-अंबर श्रीवास्तव।