नजरिया
कुछ ऐसे अहसास होते हैं जिन्हें समझे बिना यह ज़िन्दगी अधूरी है लेकिन इन अहसासों को शब्दों में पिरोने के लिए अल्फ़ाज़ बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। ऐसे ही कुछ अल्फ़ाज़ मैँ आज आपके सामने रखना चाहता हूं…
अगर हम केवल पांच मिनट के लिए अपने गुस्से, अपने अहंकार, अपनी सारे शिकवे शिकायतों को दरकिनार कर पूरी ईमानदारी से, पूरी निष्पक्षता से खुद से केवल एक सवाल पूछेंगे कि हम किन लोगों को अपना मानते हैं? हम किन लोगों की परवाह करते है?
हमें हमारे अंतर्मन से बस यही जवाब मिलेगा कि हम उन्हीं लोगों को अपना मानते है जिनके साथ होने से हम खुद छोटा महसूस नही करते, जो हमारी कमियों के साथ तालमेल बैठाना जानते हैं, जो हमारी कमियों को नजरअंदाज करना जानते है…
हमारे अंदर कमियों का होना केवल आधा अधूरा सच है, पुरा सच किसी दूसरे द्वारा हमारी कमियों के साथ हमें अपना लेना है, पूरा सच किसी दूसरे द्वारा प्यार से हमारा साथ देकर हमें हमारी कमियों से बाहर निकाल लेना है। उसके साथ होने भर से हम बजाय घटने के बढ़ रहे होते हैं…
अब हम इसी बात को उल्टा करके दूसरे नजरिये से देखते हैं, जब हम किसी दूसरे का साथ देने की बजाय उसे उसकी कमियाँ गिना रहे होते है, उसे उसके छोटा होने का अहसास करवा रहे होते हैं, तब हम उसके साथ साथ खुद को भी छोटा कर रहे होते हैं। हम सही रास्ता छोड़ गलत रास्ता चुन रहे होते हैं और हमसे यह सब कुछ कोई और नही बल्कि हमारे अंदर का अहंकार, गुस्सा, द्वेष ही करवा रहा होता है…
अगर हमारा नजरिया सही है तो लोगों को समझना, इस ज़िन्दगी को समझना उतना भी मुश्किल नही है, जितना मुश्किल हम इसे समझते हैं। वास्तव में हम वो उलझे हुए लोग हैं जो किसी भी उलझन को सुलझाने में असमर्थ है और अपनी इस असमर्थता को छुपाने के लिए हम शाम, दाम, दंड, भेद सबका प्रयोग करते हैं…
अपने मन की इन चालाकियों को समझ लेना, अपने इस दोहरेपन को समझ लेना ही इस जीवन का असली संघर्ष है, वो संघर्ष जिसके आगे दूसरों की बुराईयां छोटी नजर आने लगती है…