नक़ाब…
वो गया था, परिंदों सी उड़ान भरके
तन्हाँ मुझे चौराहे पर, खड़ा करके…
आज मैंने भी उसका, नक़ाब है पहना
समझना चाहती हूँ उसे, उसके जैसा बनके…
तमाम उम्मीदों के चराग़, एक साथ बुझ गए
आँधियों में ज़ली थी, शमा बनके…
बदग़ुमानी में कुछ, देख -सुन सकता नहीं
एक बार ज़रा देखे वो, मुझे समझके…
वक्त के तमाम खेल है, उसके हवाले ‘अर्पिता’
मेरे सिवा कौन रहेगा, यूँ खिलौना बनके…
-✍️देवश्री पारीक ‘अर्पिता’
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