नकाबपोश रिश्ता
मैं उस बेवफा से वफा की उम्मीद ही क्या करता,
जब पूछा किसी ने हमारा रिश्ता उससे,
तो अपना भाई बताकर मुझे उसने अपना दामन छिपा लिया..
भले ही पिछली रात हम दोनों ने साथ गुजारी थी,
भले ही उस रात का गवाह चाँद और टिमटिमाते तारे थे,
फिर भी उसने दिन के उजाले में सबकुछ झुठला दिया..
मेरी उम्मीद थी रिश्ते को क्षितिज तक पार लेकर जाने की,
मेरी हर वफा थी समुंदर की उफनती धाराओं में से कस्ती को संभाल कर पार ले जाने की,
मगर उसने चुपके से ही पतवार में छेद कर दिया.।
मैं हैरान हताश होकर उसके पीछे ही खड़ा रहा,
वो झूठ दर झूठ बेखौफ होकर बोलती रही,
उसने हमारी अब तक की कहानी का हर मोड़ ही बदल दिया.।
अब मेरा यकीन मुझसे ही दर किनारा कर गया है,
जो मुझे याद था सब धुंधला हो गया है,
हमारा रिश्ता क्या था और अब क्या हो गया है.।
“प्रशांत सोलंकी”