नए युग का यह चलन नया
खिड़की से देख रहा हूँ,
गाँव को मैं ताक रहा हूँ,
गलियाँ लगती सुनसान,
भटक गई अब मुस्कान,
गुमसुम हैं प्यारा बचपन,
दिखता नहीं अपनापन,
घर के कोने में बैठकर,
कैसे हो गए यह बेखबर,
मोबाईल लिए हैं हर हाथ,
किताब का नहीं अब साथ,
लगता हैं गाँव बदल गया,
नये युग का यह चलन नया,
चिड़िया अब कैसे चहके,
जब फूल नहीं अब महके,
आँगन भी अब गए सिमट,
पनघट पर नहीं हैं जमघट,