नई ऱोशनी
ज़िंदगी बेफ़िक्र होकर गुज़ार दी,
जो भी मुश्किलें थी हँस कर टाल दी,
चोट का ए़हसास भी मुस्कुरा कर भुला दिया,
क्या क़ुफ्र क्या सब़ाब यह फर्क ना समझ सके,
जो भी सामने था उसे अपना लिया,
फ़रेब और सच को ना जान सके,
अ़र्श से ग़र्त की राहों से रहे बेअ़सर,
जिस तरफ हम चले थे उसकी मंज़िलों से रहे बेख़बर,
ग़िले-शिक़वे का सिलसिला थमता नहीं था,
सुक़ून और स़ब्र कभी मिलता ना था,
ज़ेहन पर ज़ुनून हर वक्त त़ारी था,
हैव़ानियत इंसानियत पर भारी था,
तभी दूर से एक आवाज आई , ऐ नाख़ुदा तू अपनी ख़ुदी को भूल चुका है,
नेक़ नीय़त और ज़र्फ को भूलकर ऱूह को किस मोड़ पर ले खड़ा है,
जिस जगह तू है वहाँ इंसान नहीं शैतानों का जमावड़ा है,
अब भी दूर नहीं तुझसे नई सुब़ह , अपना ले ज़िंदगी के उस़ूल कर अपने ज़ुर्म कुब़ूल,
तय़ है मिट जाएंगे क़यामत के ये अंधेरे,
और नई ऱोशनी के आग़ाज़ के साथ तेरे साथ होगा तेरा रस़ूल।