नई परिभाषा
“अस्सलाम वालेकुम, भाईजान!” उसने बड़े अदब से कहा।
“वालेकुम अस्सलाम!” आलम ने मुस्कुराते हुए अपरिचित का अभिवादन स्वीकार करते हुए कहा।
“भाईजान मेरा नाम रहमान है। मैंने सुना है कि दंगों में आपके वालिद ….” कहते-कहते रहमान रुक गया। आलम के चेहरे पर पुराने ज़ख़्म हरे हो गए।
“कबूतरों को दाना डालते हुए, मुझे बड़ा सकूँ मिलता है। लीजिए, आप भी इस नेक काम को अंजाम दीजिये।” आलम ने अपने चेहरे पर मुस्कान लाते हुए कहा और रहमान की तरफ़ दानों से भरा थाल बढ़ाया। नेकी से जो चमक और ऊर्जा पैदा होती है। रहमान को आलम के चेहरे पर इस वक्त वही चमक दिखाई दी।
“तुम्हे ये शौक कबसे पैदा हुआ?” रहमान ने चंद दाने कबूतरों के समूह की ओर फैंकते हुए कहा।
“मेरे दादा जान से।” आलम ने मुस्कुराते हुए कहा।
“और तुम्हारे अब्बा!” कहते-कहते रहमान फिर रुक गया।
“वो गोधरा कांड के बाद भड़के दंगों में मारे गए थे।” आलम ने कबूतरों की तरफ़ दाना फैंकते हुए अति-शांतिपूर्वक कहा।
“क्या तुम्हारे मन में बदले की भावना पैदा नहीं हुई?” रहमान ने अपना लहजा थोड़ा सख्त किया।
“क्या किसी बेकसूर को मार देने से बदला पूरा हो जाता है। क्या मेरे अब्बू ऐसा करने से लौट आते?” रहमान के प्रश्न के उत्तर में आलम ने ही उससे एक और प्रश्न किया।
“नहीं … लेकिन इससे तुम्हारे दिल को तसल्ली मिलती।”
“नहीं … कोई तसल्ली हांसिल नहीं होती। रहमान भाई आपकी सोच एकदम ग़लत है! नफरत से कभी नफरत नहीं मिटाई जा सकती।” आलम ने उसी सादगी से जवाब दिया, “रहा सवाल तसल्ली का तो रोज़ाना कबूतरों को दाना डालने से मुझे जो सकून मिलता है उसका फायदा ज़ाहिर तौर से मेरे वालिद की रूह तक भी पहुँचता है।”
“बेशक, अल्लाह के नेक बन्दे हो आप!” रहमान ने आकाश की ओर देखते हुए कहा, “मुझे एक किस्सा याद आ रहा है आलम भाई। दिल्ली के जे.एन.यू. में पढ़ाई के दौरान मेरी एक बार ए.बी.वी.पी. के एक छात्र विष्णु से बहस हो गयी थी। वो कह रहा था, “आप हमारे कर्मयोगी हिन्दू नेता जी की सफलता का रहस्य जानते है, रहमान भाईजान?” तो मैंने न में सिर हिलाया, तो फिर वो आगे बोला, “अल्पसंख्यक मुस्लिम उनका विरोध करते हैं! और उनसे काफ़ी नफ़रत भी! लेकिन बहुसंख्यक हिन्दू उनसे प्रेम करते थे, हैं और करते रहेंगे! यदि अल्पसंख्यक भी उन्हें सम्मान देने लगते तो फिर वह हम बहुसंख्यकों के बीच लोकप्रिय नहीं होते।”
“विष्णु भाई, तुम चाहे जो भी दलील दे लो! जो झूठा-मक्कार है, उसको हमेशा ग़लत ही कहा जाएगा, चाहे हम अल्पसंख्यक मुस्लिमों में हो या चाहे वो अधिक संख्या वाले हिन्दुओं में हो?” विष्णु से बहस करते हुए उस रोज़, हमेशा शान्तिप्रिय रहने वाला रहमान यकायक आक्रोश से भर गया था। वहाँ कैंटीन में उपस्थित अन्य छात्रों ने पहली बार रहमान को अशान्त, उत्तेजित और क्रोधित अवस्था में देखा था। उस रोज़ सभी शान्ति भाव से दोनों के मध्य में हो रही बहस को सुन रहे थे। कुछ छात्र वामपन्थ के स्पोर्टर थे तो कुछ दक्षिणपन्थी भी।
“सर जी, आपके या मेरे चाहने या कहने से कुछ नहीं होता!” मेरे आक्रोश को देखते हुए, विष्णु ने कुछ विनम्र होते हुए कहा, “वास्तविकता यही है कि हमारे नेताजी सत्ता में ‘विरोध’ के चलते ही हैं और तब तक रहेंगे! जब तक यह विरोध ज़ारी रहेगा! ‘गोधरा’ क्रिया की प्रतिक्रिया थी। यदि बोगी नहीं जलाई गई होती, तो 2002 में गोधरा प्रकरण नहीं हुआ होता। ठीक ऐसे ही जैसे 1984 में इन्दिरा गाँधी जी की हत्या, दंगों का कारण बनी। दोनों जगह दंगों के लिए सत्ता पक्ष ही ज़िम्मेदार हैं! बुद्धिजीवि होने के नाते हमें हर वस्तु की सही समीक्षा और जानकारी होनी चाहिए! तू-तू मैं-मैं करके कोई लाभ नहीं! सत्य यही है! 2024 में हमारे नेता जी इसी विरोध के चलते फिर सत्ता में होंगे!”
“गोधरा जिसने किया उसको सबके सामने फांसी दो, लेकिन 2000 से ज़्यादा बेगुनाहों को किसने मारा, क्या हिंदुओ ने?” रहमान का आक्रोश बरक़रार था विष्णु पर, “बच्चियो का बलात्कार किसने किया? माओं का पेट फाड़कर बच्चों को, किसने ज़िंदा जलाया…? यह सब आपके नेता ने किया और अगर आप ऐसे दरिंदे को अपना नेता मानते हो तो, आप भी ऐसे ही दरिंदे नहीं हो क्या?”
“देखिये रहमान भाईजान, दंगा कहीं भी हो! कभी भी हो, बेगुनाह लोग ही मारे जाते हैं। 1947 में लाखों हिन्दू-सिख-मुसलमान मारे गए थे। वो सब क्या अपराधी थे! उसके लिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ज़िम्मेदार थे, क्योंकि भारत-पाकिस्तान में यही सत्ता में थे।” विष्णु ने सयम के साथ अपना दृष्टिकोण व्यक्त किया, “रही बात हज़ारों दंगे तब से अब तक हो चुके हैं! दंगों का इतिहास आज़ादी से बहुत पहले का है! आप विकिपीडिया में पढ़ सकते हो! होनी बलवान होती है। उस होनी को टालने का काम निःसंदेह सत्ताधारी लोगों के सिर होता है। 1984 में जो सिख भाइयों का क़त्लेआम दिल्ली में हुआ। या 1980 के अंत में जो खालिस्तान आन्दोलन चला। जिसके तहत हिन्दू-सिखों के मध्य दरार डाली गई। और पंजाब में एक पूरा दशक आतंकवाद से त्रासद रहा। यही हाल कश्मीर का था, आज़ादी के बाद से ही वहाँ शोले सुलगते रहे और सत्ताधारियों ने उन शोलों को हवा दी। धारा 370 और 35ए हटने तक वहाँ 70 वर्षों में कितने ही निर्दोष शहरी व हमारे सैनिक मारे गए थे, ये भी देश जनता है। गोधरा का सच-झूठ भी मिडिया, क़िताबों, पत्र-पत्रिकाओं में बिखरा पड़ा है। आप अपने हिस्से का सच तलाश लीजिये भाईजान, जिससे आपको तसल्ली मिले। हर कोई अपने हितों को ध्यान में रखकर ही सच की व्याख्या करता है। एक पक्ष हमेशा ही हर चीज़ को जायज़ ठहरता है और दूसरा पक्ष हमेशा उसका विरोध करता है। मगर एक बात विष्णु ने उस रोज़ सही कही थी।”
“क्या?” अब तक मूक दर्शक बना आलम रहमान की बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था।
“कोई जन्म से साम्प्रदायिक या धर्म निरपेक्ष नहीं होता! हर कोई अपनी सुविधा के अनुसार इसे इस्तेमाल करता है। नेता किसी का सगा या बैरी नहीं होता! कोई भी नेता जिस गुण्डे को अपने हक़ में इस्तेमाल करता है। वहीं विपरीत परिस्थिति उतपन्न होने या उससे अपना काम निकल जाने के बाद एन्काउंटर में मरवा भी देता है। अख़बार हो, समाचार मीडिया चैनल हों, या कोई भी सोशल प्लेटफ़ार्म सब अपने-अपने हितों की रक्षा करते हैं और अपने-अपने पक्ष के झूठ और सच की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। आप किसी भी जात-धर्म पर विश्वास नहीं कर सकते!” आलम उसी तन्मयता व गंभीरता के साथ रहमान की बातें सुन रहे थे। इस पर अपनी कुछ प्रतिक्रिया देना ही चाहते थे कि उनकी बेटी की आवाज़ ने उनका ध्यान भंग किया।
“अब्बू …. तुम्हारी चाय।” प्याला आलम के सामने बढ़ाते हुए आठ-नौ बरस की एक बच्ची वहां प्रकट हुई।
“बेटी एकता, एक प्याला और ले आओ। ये रहमान चाचा पिएंगे।” आलम ने चाय का प्याला रहमान को थमाया।
“जी अब्बू …” कहकर बिटिया पुनः घर के अंदर चली गई।
“आपकी बच्ची का नाम एकता? ये तो हिन्दू नाम जान पड़ता है!” कहकर रहमान ने चाय की चुस्की ली।
“हिन्दू की बेटी है तो हिन्दू नाम ही होगा!” आलम ने ठहाका सा लगाया।
“मतलब … मैं कुछ समझा नहीं।” रहमान ने हैरानी जताई।
“गोधरा में अयोध्या से लौट रहे कार सेवकों की जिस बोगी को आग के हवाले किया गया था। उसमे एकता के पिता भी ….” आगे के शब्द आलम के मुंह में ही रह गए थे।
“ओह! यतीम बच्ची को गोद लेकर आपने बड़ा नेक काम किया आलम भाई। आप फरिश्ता….” रहमान ने इतना कहा ही था कि बच्ची पुनः एक प्याला चाय लेकर हाज़िर थी।
“अब्बू आपकी चाय।” नन्ही एकता ने मुस्कुराते हुए कहा।
“एकता, अपनी अम्मी को कहना, रहमान चाचा भी दिन का भोजन हमारे साथ करेंगे।” चाय का प्याला पकड़ते हुए आलम बोला।
“ठीक है अब्बू।” कहकर एकता अंदर चली गई।
लगभग दो-तीन मिनट तक वातावरण में चुप्पी सी छाई रही। दोनों के चाय पीने का स्वर, कबूतरों के गुटर-गूं का स्वर अब स्पष्ट रूप से सुना जा सकता था।
“भाईजान, आज आपने मुझे जीवन की नई परिभाषा समझा दी।” खाली कप ज़मीन पर रखने के बाद, कहते हुए रहमान ने जेब से रिवॉल्वर निकाली और आलम के चरणों में डाल दी।
“ये सब क्या है रहमान भाई?” आलम हैरान थे।
“मुझे इन्डियन मुजाहिदीन ने आपके अब्बू के कातिलों के बारे में मालुमात हांसिल करने और उसके बाद उन कातिलों को सजा देने के लिए भेजा था।” रहमान ने अपनी सच्चाई ज़ाहिर की।
“और अब क्या करोगे?” आलम ने पूछा।
“अब उम्रभर अल्लाह की इबादत और लोगों की खिदमत करूँगा।” रहमान ने खुशदिली से कहा।
“आमीन!” और दुआओं के लिए आलम के हाथ अपने आप उठ गए।