नई दृष्टि
सब कुछ दुविधाग्रस्त
हर तरफ सिर्फ़
उलझाव ही उलझाव।
बहुत मुश्किल है
मिल जाए हॅंसने को
दो चार उन्मुक्त पल।
ऊपरी चमक ने
मानव आंखों को
चुंधिया दिया है।
वे देख ही नहीं पाती
असली क्या है
और नकली क्या है?
बुनकर भौतिकता का
मकड़जाल
उसमें फंस गया है।
छटपटा रहा है
अपनी अस्तित्व की
तलाश में आदमी।
यदि उसे खुद को
पहचानना है
सत्य को जानना है।
उसे हटाना होगा
अपनी आंखों से
चमक का पर्दा।
देखने को सृष्टि
पानी होगी
अपनी एक नई दृष्टि।
तब ही
देख पाएगा
प्रकृति के नवरंग।
और भर पाएगा
हृदय में
कुछ नया करने की उमंग।
—प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव,
अलवर (राजस्थान)