कान्हा तेरे दर्शन को
नँद नन्दन कित गये दुराय !
ढूँढत घूमी सिगरी बृज भूमी,
गये मेरे पायँ पिराय।
कान्हां , मैं तुम्हरे प्रेम में बौरि गई,
औंधाई गगरी पनघट दौरि गई।
देखूँ इत उत उचकि उचकि,
कहीं पड़ते नहीं लखाय।
भ्रमित भई सुनि भँवरे की गुंजन,
ढूंढे सघन करील की कुंजन।
रे मनमोहन तेरे दर्शन बिन,
नैन रहे अकुलाय।
जयन्ती प्रसाद शर्मा