“धैर्य एवं संयम का बांध” (लघुकथा )
आज फिर से तुम देर से कार्यालय आ रही हो वर्षा, अधिकारी ने वर्षा से डांटकर कहा । तुम्हें मालूम नहीं है ?? कितना सारा कार्य पूर्ण करना है । कम्प्यूटर में ड्राफ्ट को अंतिम रूप देना है और वह तुम्हें ही ज्ञात हैं । कम से कम एक फोन तो कर ही सकती थी ।
और ये क्या मैं तुमसे डांट कर बात कर रहा हूं, तुम हो कि मूर्ति बनकर चुपचाप खड़ी रहती हो ।
अब वर्षा ने अधिकारी को जवाब दिया कि महोदय अब मेरे धैर्य और संयम का बांध टूट गया है । इतनी देर से मैं आपकी बात सुनकर चुप थी, वह बस इसलिए नहीं कि मैं जवाब नहीं दे सकती । महोदय दो दिन से मेरे साथ क्या समस्या है? यह तो न जानने की कोशिश की आपने और ना ही पूछने की जहमत की । इतना तन्मयतापूर्वक कार्य करने के बाद भी आप संतुष्ट नहीं हैं ।आपको सिर्फ काम से ही मतलब है और घरवालों को पैसा से । बस! अब बहुत हुआ, मैं भी कितना जुल्म बर्दाश्त करूंगी, आखिर उसकी भी कोई सीमा तय है । वह तो मैं अपने धैर्य और संयम से दोनों ही जगह विभाजन करते हुए कार्य को मूर्त रूप दे रही थी, पर अब नहीं महोदय, ये लिजीए मेरा त्यागपत्र मुझे तो दूसरा कार्य मिल ही जाएगा, लेकिन मुझे अफसोस इस बात का है कि आप एक कर्मठ कर्मचारी खो देंगे ।
(आरती अयाचित)
मौलिक एक स्वरचित कहानी