–धूल गए सब अरमान –
माटी से पैदा हुआ था
माटी में मिल रहा है आदमी
रोजाना न जाने कितने आते हैं
न जाने कितने रुखसत हो जाते हैं
जीवन जीना सा भूल गया आदमी
दिमाग से भी अपंग हो गया आदमी
कोशिश करना चाहता है हजार
पर शून्य पर आ गिरता है हर बार
कैसा कैसा वक्त आ रहा है
जीना चाहता है पर जी नहीं पा रहा है
एक खौफनाक सा मंजर मिल रहा है
जिधर भी नजर घूमता है हर बार
शायद इंसान के किये का फल है
या किसी की बुरी लगी हुई नजर है
आज विधाता भी बैठा है मुख मोड़
न जाने कैसे करेगा अपना इंसान कारोबार
अजीत कुमार तलवार
मेरठ