धूप में छाँव में साथ देना सदा।
आधार छंद- वास्रग्विणी (मापनीयुक्त मात्रिक)
मापनी- गालगा गालगा गालगा गालगा
गीतिका
212 212 212 212
धूप में छाँव में साथ देना सदा।
देख भाने लगी प्रेम की ये अदा।
है नहीं चाँद में रूप ऐसा मिला,
बोल पाये नहीं आप पे हैं फिदा।
ख्वाब खामोशियों से सराबोर हूँ,
आत्मा में बसे हो न पाये जुदा।
दूर हो पास हो फर्क है ही नहीं,
रूह से हो जुड़े मानती हूँ खुदा।
दीप की चाह में जो पतंगा जला,
प्रेम की लालसा में मिटा सर्वदा।
जो तपा आग में स्वर्ण सा है बना,
उम्र का भी रहा एक ही कायदा।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली