धुआँ…
जलता है कुछ तो, उठता है ये धुआँ
बुझता भी है तो, घुटता है यह धुआँ…
आँखों में कुछ दर्द सा, उमड़ता हुआ
बनके ज़िन्दगी का तज़ुर्बा, बरसता है ये धुआँ…
अपनी -अपनी राहें सबकी, मंजिल भी ज़ुदा
पर एक बात है सफर बनके, मुड़ता है ये धुआँ…
कोई ऐतबार और इख्तियार नहीं उनका
चलके साथ-साथ भी, बिछड़ता है ये धुआँ…
मेरे दिल को सुकून भी है, तुझसे ए कसक
होकर जुदा मुझसे किसतरहाँ, जलता है ये धुआँ…
‘अर्पिता’ की हसरत है कि अब खाक हो जाएं
जिसतरहाँ जल -जल के, ख़ाक होता है ये धुआँ…
-✍️देवश्री पारीक ‘अर्पिता’
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