धुआँ धुआँ होती जिन्दगी
दीये हैं
जलने लगे
हो रही
रोशन
ज़िन्दगियाँ
है कैसी
पहेली ये
नीचे अंधेरा
ऊपर है धुआँ
धुआँ धुआँ
हो रही
जिन्दगी
अपने थे पास
तो
चिन्गारियाँ थी
गये तो
खामोश
है जिन्दगी
लगता है डर
” संतोष ”
अब तो
श्मशान
देख कर
लकड़ियों के
ढेर में
कहीं
हम भी
तो हैं
धुएं के
गुबार में
फकीर
कभी हताश
हुआ नहीं
जिन्दगी से
धुआँ धुआँ
हुई जब
जिन्दगी
मौला ने
हाथ
थाम लिया
निकले जब
आंसू
माँ के
समझ गया
सेंकी हैं रोटी
उसने धुएं में
“संतोष ” और
क्या कहे
कहानी तेरी
जली जब
कोई दुल्हन
धुआँ कह गया
कहानी उसकी
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल