कितने संघर्ष आसान हुऐ
धुंध के मानिंद
आज एक बार
सुरों से अलग
फिर कहीं गुजरे
सोंचों के झांझावतों
चिरपिरिचत विचारों में
किसी राहगीर की तरह
परंतु बिना किसी योजन
मानचित्र के, बस यूंही
कुछ राहें याद तो थी
किंतु वे धुमिल और
बहुत धुंधला गयी थी
याद भी नही जैसे
जाने कितना समय
गुजरा होगा,पाटने में
उमर की खाईयों को
कदाचित अनुभवों की
सूची और फाईलों को
राहगीर हैं, कितने बार
आना जाना लगा रहता है
किंतु हैरान है,बेखयाली में
भागते हुए सीधी टेढी राहों में
अरसों से मालूम नही जीवन में
कितने अनगिनत आयाम बने
जाने कितने संघर्ष आसान हुऐ
यूं ही बस चलते कभी रेंगते !!
नीलम “नील”
देहरादून