धीरे-धीरे………
धीरे-धीरे पूरी तरह,
बेक़ार हो रहा हूँ ।
एक कचरे के डिब्बे-सा,
पड़ा रहता हूँ कोने में ।
सारी प्रतिभाएँ/कलाएँ,
जूठी पत्तलों-सी भरी हैं ।
दुर्दैव के कौए,
अपना भोजन खोजते रहते हैं ।
रह-रहकर सड़ाँध उठने से,
अपने लोग नाक सिकोड़ने लगे हैं ।
पर उठाकर बाहर,
कोई नहीं फेंकता है ।
शायद उन्हें आशा है,
अब भी कुछ,
काम की चीज़ मिल जाए ।
जो ग़लती से फेंक दी हो,
अवसरवाद पर काम आए !!