‘धिक्कार पौरुषाई पर’
जब कूक उठी तब मीठी थी, क्यों हूक उठी अब कर्कश है।
है बेटी क्या ये जगती वालो, कोई खेल तमाशा सर्कस है ?
जब चाहा तब अपमान किया, इच्छा अनुरूप व्यवहार किया।
मिट्टी का खिलौना समझ इसे, झट खेल-तोड़कर फेंक दिया।
क्यों भूल रहे निर्लज्ज तुम्हारी, माता, बहन और पत्नी है ये।
संस्कार अदाग व प्यार अपार, दहलीज चरित्र घर बार है ये।
बन क्रूर-हत्यारे अत्याचारी, ना नर, नारी का अपमान करो।
पावन-पुनीत निर्मल हैं रिश्ते, निर्ममता कर न बेकार करो।
‘बेटी बचाओ’ नारा था जुमला, बस मत पाना आकाओं की,
माचिस की डिबिया थी खाली, न आस कोई शलाकाओं की।
धिक्कार तुम्हारे कुमानस को, धिक्कार तुम्हारी पौरुषाई पर।
कायर दुदुम्भी क़ातिल हो तुम, धिक्कार ‘मयंक’आतताई पर।