धार तुम देते रहो
रहोगे अभिशप्त,
यदि करोगे सत्य का तिरष्कार,
सकारात्मक-विचारवान बन,
कर लो सत्य को स्वीकार;
सत्य का स्वरुप ही है-
निर्विकार स्वरुप,
असत्य भ्रम का ज़ाल है,
अज्ञान का प्रतिरूप;
पर सत्य और असत्य का
भेद दुष्कर कार्य है,
गर चेतना चेतन रहे,
तब ही सुलभ ये कार्य है ।
संत्रास को तुम त्याग कर,
निज पथ पर अविकल बढ़ते रहो,
पाटल-प्रसून सम खिल जाओगे,
जो कंटकों को सहते रहो ।
आक्षेप-निराक्षेप से,
ऊपर करो निज व्यक्तित्व को;
दृष्टि रखो निज लक्ष्य पर,
बनाये रखो अस्तित्व को ।
इस प्रयास में पर सत्य की,
साधना न त्यागना;
बल्कि अपनी साधना को यूँ,
धार तुम देते रहो ।
(c)@ दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”