धार्मिक बनाम धर्मशील
धर्म को लेकर समाज में बहुत अधिक भ्रांतियां हैं। प्रबुद्ध वर्ग की धारणा है कि आधुनिक समाज में धर्म झगड़े की जड़ है। इसी के कारण समाज में दंगे फ़साद होते हैं। विगत कुछ वर्षों में विश्व भर में स्वयं को अ-धार्मिक घोषित करने वालों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है । अगर धर्म को इसके वास्तविक स्वरूप में न अपना कर वर्तमान स्वरूप में अपनाने का दुराग्रह रहा तो भविष्य में अ-धार्मिक लोगों की संख्या में और अधिक वृद्धि हो सकती है। विश्व भर में सभी धर्मों का एक वाह्य रूप है और दूसरा उसका आंतरिक रुप है । धार्मिक चिन्ह/ प्रतीक , पहनावा, खानपान , पूजा पद्धति , कर्मकांड , वेशभूषा इत्यादि धर्म का बाहरी स्वरूप है। धर्म का यह बाहरी स्वरूप ही उस धर्म के अनुयायियों की संस्कृति का निर्माण करता है । धर्म के इस बाह्य स्वरूप को अपनाने वालों को “धार्मिक” कहा जाता है । धर्म का यह स्वरूप धर्म का वास्तविक स्वरूप नहीं है । धर्म का वास्तविक स्वरूप इसका आंतरिक स्वरूप है । धर्म के आंतरिक स्वरूप में सत्य, अहिंसा , अस्तेय, अपरिग्रह , तप, संतोष, ब्रम्हचर्य , शौच इत्यादि बातों को अपने जीवन में अपनाने पर ज़ोर दिया जाता है। जो व्यक्ति उपरोक्त बातों को अपने जीवन में अपनाता है उसे “धर्मशील” कहा जाता है । सभी धर्मों का आंतरिक स्वरूप एक जैसा ही है ।
उपरोक्त विवेचना के आधार पर हम कह सकते हैं कि “धार्मिक” व्यक्ति धर्म के बाहरी और बनावटी स्वरूप का पक्षधर होता है जबकि “धर्मशील” व्यक्ति धर्म के आंतरिक और वास्तविक स्वरूप का अनुयाई होता है।
“धार्मिक” व्यक्ति धर्म परिवर्तन और धर्मांधता को बढ़ावा देता है । समाज में विद्वेष और घृणा फैलाने का कार्य करता है । इसके विपरीत “धर्मशील” व्यक्ति सदैव जियो और जीने दो का मूल मंत्र अपनाता है । उसे कभी किसी से कोई शिकायत नहीं रहती और वह स्वयं कभी किसी को शिकायत का मौक़ा नहीं देता । धार्मिक व्यक्ति क्षुद्र बुद्धि का होता है और परमात्मा से बहुत दूर होता है , जबकि धर्मशील व्यक्ति तत्वज्ञ होता है और ईश्वर का विशेष कृपा पात्र होता है ।
… शिवकुमार बिलगरामी