धारणा!
ये तो दूध के धुले हैं,
वे तो गंगा मैया से नहा कर निकले हैं,
ये तो एक दम साफ़ सुथरे हैं,
ये स्वच्छ, सुंदर और उजले हैं!
वो गन्दे हैं,
मैले कुचैले हैं,
जमाने भर की,
गंदगी को लपेटे हैं!
ये नजर,
ये नजरिया,
हमें,
कहां ले जा रहा है,
ये,
तौर तरीका,
हमें कहां पहुंचा रहा है!
मनुष्य हैं हम,
पर मनुष्यता को त्यागे जा रहे हैं,
जाहिलों का सा बर्ताव अपना रहे हैं,
जीवन जीने को क्या अन्य अवरोध कम हैं,
जो ऊंच नीच के भेद में बंटते जा रहे हैं,
जात पांत को अपना रहे हैं,
धर्म संप्रदाय के खेल में उलझते जा रहे हैं
या फिर अब इसे ही जीवन जीने की ,
पद्धति मानते जा रहे हैं!
क्या हम यह सब कुछ नहीं जानते,
या जानते बुझते हुए भी अनजान हुए जा रहे हैं,
या फिर अपनी सुविधा के अनुरूप ढलते जा रहे हैं,
या फिर हम अपनी धारणा को,
दूसरों पर थोपना चाह रहे हैं,
ये हम क्या कर रहे हैं,
ये हम क्या चाह रहे हैं,
ये हम कहां को चले जा रहे हैं!