धरा की धूल
धरा की धूल
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धरा की धूल मिट्टी हूँ मैं ,
उड़कर कहाँ तक जाउंगा ।
छुटेंगे जब वायु के थपेड़े ,
वापस ज़मीं पे ही आऊंगा।
पंचभूतों से बना तन ,
अपने तो वश में नहीं है।
इस कदर बहका है अंतस ,
बेबस हुआ जीवन का क्षण है।
पीड़ा अगन में सुलगकर ,
क्रोध ज्वाला वाष्प बनता।
चपल बयार संग बहककर ,
दूर तलक उड़कर है जाता।
प्रेम की बूंदे अगोचर ,
पड़ती जब चहुंओर इसके।
स्नेह की चादर लिपट यह ,
घनीभूत गिरता फिर धरा पर।
प्रेम रस में भींगा मन तो ,
आनंद धार बन मुक्ति पाता।
प्रेम विलग यदि तन से हो तो ,
पीड़ा अगन में मन तड़पता।
जन्मों की श्रृंखलाबद्ध कड़ी में ,
चेतनतत्व युँ ही भटकता ।
जीवन चक्र की है यह कहानी ,
पंचतत्वों से दुहराया जाता।
सुख-दुख से भरी ये जिंदगानी ,
मिट्टी,वायु,अग्नि और पानी ,
साथ गगन है अंतरजानी ।
ख्वाबों की झोली में सजता ,
माया विशाल की अपनी कहानी।
इस जगत का जो विधाता ,
माटी का पुतला बनाकर ,
सपनों की बस्ती में लाता।
सपने फिर तब उजड़ते ,
सांसो की जब डोर थमती।
पंचतत्वों से बना है ये तन ,
मिट्टी वायु जल में मिलता।
धरा की धूल का जग में ,
बस यही है इक ठिकाना।
कितना भी उड़ान भर ले ,
वापस फिर मिट्टी में आना।
पथिक का काम तो है बस ,
सपने को मुट्ठी में भर चलते जाना।
पलकें खुली तो मुट्ठी बंद ,
मुट्ठी खुली तो पलकें बंद।
ऐसा ही हस्र है धरा की धूल का भी ,
नियति के हाथों में ही सिमटी।
उसकी गति,उड़ान और किस्मत बंद।
मौलिक एवं स्वरचित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – १२ /०८/२०२१
मोबाइल न. – 8757227201