धरती
धरती
नदियां कलकल करके बहतीं
होता नित अमिय प्रवाहित।
प्राणवायु ले पवन डोलता
जीवन यह तभी प्रसारित।
सागर तपता रात दिवस है
सघन मेघ अम्बर पाता ।
राह देखता जग यह सारा
सबकी ही प्यास बुझाता।
बन तपस्विनी धरती तपती
सूर्य मंत्र कर उच्चारित।
नदी भरे है अपना गागर
लेकर सागर तक जाती।
धरती पहने धानी चूनर
देख हिया में सुख पाती।
तरुवर झूम झूम करते हैं
यश को जगमांहि प्रचारित।
खुशहाली का दिन यह आया
बहुतों के पुण्य आज जागे।
मिला आज नवजीवन यह
दुर्दिन दुनिया के भागे।
फसल दिखाती शोभा अपनी
सबमें इक खुशी समाहित।
डॉ सरला सिंह ‘स्निग्धा’
दिल्ली