धरती का त्यागपत्र २
एकांत में श्री हरि ,
मन में कर रहे थे विचार,
दोनों के रोगों का बेचारे,
दूढ़ रहे थे उपचार,
आखिर क्या ग़लत कहा धरा ने,
आजतक तो हर ग़म अकेली ही सेहती आईं हैं,
कुछ वक्त जा कर में बांट लेता कष्ट उसका,
देवताओं के कार्य के लिए,
उसने किया अपना जीवन बलिदान,
ऐसे संतानों कि क्यों आवश्यकता मुझे,
जो धर्म , मर्यादा सब भूल चुके,
उचित है निर्णय प्रिय का,
मैं ना करूंगा हस्तछेप उसके बातों में।