धन्य है पिता
धन्य है पिता
जीवन की हर सुबह
चल पड़ते है वे
दिनभर गतिशील
दो पैर, जो कभी रुके नहीं
हर दिन ढेरों जिम्मेदारी लिये
घर का भार वहन करते
बच्चों के झूले
दो कंधे, जो कभी थके नहीं
न जाने उन दो हाथों में
कौनसी अनोखी शक्ति है
जीवनभर काम पे रहे
मगर, आज भी रुके नहीं
कई मरे हूए सपनें
दबे रह गये तकलीफों के नीचे
कर्ज की चिंता में ढूबी
दो आँखे, जो कभी रोयी नहीं
एक मुर्झाया चेहरा
वक्त से पहले झुर्रियों से भरा
खामोश बैठा अकेला
जीवन के सवाल सुलझाता रहा
विवश होकर कभी
लाचारी नहीं दिखलायी
जिम्मेदार बने सदा
पिता की सारी जिम्मेदारी उठायी
अदम्य साहस लिये
वह आजीवन चलता ही रहा
फर्ज सारे अदा किये
दर्द में भी वह हँसता ही रहा
घर की छत बने वे
दीवारों को संबल देते रहे
घर का चूल्हा बूझे नहीं कभी
इसीलिए जीवनभर चलते रहे…।
अनिल कुमार, वरिष्ठ अध्यापक हिन्दी
ग्राम देई, जिला बूंदी, राजस्थान