धनमद
अक्सर ऐसा हो जाता है, सहसा जब धन मिल जाता है।
खुद को भगवान बताने को, वह सारे जुगत लगाता है।।
फिर सत्य कहां करूणा कैसी, मानव गुण सब खा जाता है। ।गिरना उठना झुकना सहना, मिलकर चलना कब आता है।।
धन बल से हो प्रेरित तब मानव, ऐसा साम्राज्य बनाता है।
क्रोध लोभ पाखंड असत्य को, अपना हथियार बनाता है।।
मैं हूं बस मैं ही हूं! विचार से, सहस्त्र अर्जुन बन जाता है।
धर्म अधर्म कर्म अपकर्म का, जब भेद भाव मिट जाता है।।
माया तृष्णा में अंध हुआ, जब कामधेनु हर लाता है।
तब परशुराम आमंत्रित कर, वह वंश नाश करवाता है।।