द्वन्द्व
मस्तिष्क और ह्रदय में यह कैसा द्वन्द्व प्रबल है?
जीती हूँ जिसको वह अमिय है कि गरल है?
दोहरापन अपने जीवन में कभी न आ पाया,
अपनेपन से सबको बाँधा समझा नहीं पराया।
इस मोड़ पर आ क्यूं यह मन आज विकल है?
जीती हूँ जिसको वह आमिय है कि गरल है?
संघर्षों के वन में ही पुष्पित हुआ यह जीवन,
तप्त दुपहरी में भी ना बरसा कभी स्नेह घन।
अतृप्त ही रहेगा क्या मन यह सोच नयन तरल है?
जीती हूँ जिसको वह अमिय है कि गरल है?
आशा की मंद किरण ही अब मेरा एक सहारा है,
जीते हो समर किसी ने हमने जीतकर हारा है ।
ना जाने क्यूं मेरा मन निश्छल और सरल है ?
मस्तिष्क और ह्रदय में यह कैसा द्वन्द्व प्रबल है?
प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव अलवर (राजस्थान )