“द्वंद”
“द्वंद”
निराश मन— सिद्ध क्यूँ? प्रसिद्ध क्यूँ?
मन में ऐसा युद्ध क्यूँ?
अनगिनत क्यूँ रास्ते ?
नहीं हुँ मैं प्रबुद्ध क्यूँ?
कुछ ही हैं सफल यहाँ ।
सभी सफल हैं क्यूँ नहीं?
हौसले थे कम कहाँ?
तो मेरा अर्थ क्यूँ नहीं?
नियति— जीवन ही ऐसा प्रश्न है,
कठिन है हल, सरल नहीं।
तू द्वंद से क्यूँ बच रहा?
तू वीर है, तू डर नहीं ॥
छल है ये समाज का,
प्रबल है ये, अटल नहीं।
टटोलता जो मन तेरा
वो व्यर्थ है, अनर्थ भी ।।
✍ सारांश सिंह ‘प्रियम’