द्रौपदी
त्रेता की वेदवती को जब राघव ने वर देकर कहा,
द्वापर में जा काम्पिल्य में जन्मोगी तुम बन सति महा।
पाञ्चाल के भूपाल के घर यज्ञ से उत्पन्न भव,
करदोगी तुम वह राज्य निष्कण्टक सदा सम्पन्न सब। (१)
यह वचन सुनकर वेदवति भई लीन तप में अनन्त दिन,
शङ्कर दरस की लालसा में कठिन तप जल अन्न बिन।
भए प्रगट आशूतोष सुखसागर प्रसन्न भए अति,
उसने कहा मुझको मिले संसार में अनुपम पति। (२)
यह वाक्य उसने पांच बार कहा सरल मन भाव से,
हो सफल तव मनकामना सङ्कर तो सरल स्वभाव के,
कारण यही था की उसे पाण्डव मिले वर पांच ही,
इस बात के साक्षी स्वयं थे त्रिकालदर्शी व्यास भी। (३)
सति द्रौपदी थी सखी मदनमोहन की मुंहबोली बहन,
थी भक्त जिसका करते थे वो खुद कुशल क्षेम वहन।
बीता समय जब राजसूय में वध हुआ शिशुपाल का,
लगी चोट ऊँगली पर निकल आया लहू नन्दलाल का। (४)
अति शीघ्र डाली फाड़ साड़ी किनारी से महंगी बड़ी,
उंगली पे लिपटा भी दी जितनी देर रही रुक्मिणी खड़ी।
बोले कृतज्ञ बहन तेरा मैं तो सदा अब ऋणी रहा,
जब भी मुझे तू बुलाएगी आ जाऊंगा तत्क्षण वहां। (५)
करिवरनगर में चल रहे थे शकुनि के षड्यंत्र नित,
थी चालबाज़ी बुलाने की पाण्डवों को छल द्यूत हित।
धृतराष्ट्र थे आधीन अपने पुत्रमोह के पाश में,
और पाँचों पाण्डव चूर थे मायाभवन के विलास में। (६)
नीतिनिपुण पारिश्रमीसुत जाह्नवीनन्दन व कृप,
गुरुद्रोण गान्धारी के प्रिय वचनों से भी माने ना नृप।
आखिर को लिया बुलाए ही पाँचों को कुलवनिता सहित,
ये जानते समझे की द्युत में छल से होगा सब अहित। (७)
फिर वही हुआ जिसका था भय छल चाल कर कुरुमंच में,
घिरते गए हारते गए सब शकुनि के प्रपञ्च में।
एक एक कर हारे सभी भाई व राज व ताज भी,
निज स्त्री की भी बाज़ी लगाने से ना आए बाज़ भी। (८)
जब नाश नर का होता है पहले विवेक ही मरता है,
वरना भला कपटी कुरङ्ग की मृगया कौन करता है।
आदेश से दुर्योधन के नीच दुःशासन गया,
कर केश खींच घसीट द्रौपदी को सभा सन्मुख किया। (९)
एक स्त्री जिसे ऋतुकाल में कोई नहीं बघता कभी,
अबला खड़ी थी रक्तरञ्जित सामने हँसते सभी।
उस समय उस नारी ने अपनी लाज दांतों से पकड़,
की आर्तनाद पुकारा अपने इष्ट को कर जोड़कर। (१०)
“हे द्वारिकेश जगत्पते हे नाथ रक्षा कीजिए,
इस कुरुराजसभा में आकर लाज मेरी बचाइए।
इन मृत शरीरों की तो आँखों में न शर्म ना है दया,
एक आप ही हैं सर्वशक्तिसमर्थ केवल सर्वथा। (११)
एक स्त्री की जिसके वपु को ना देखा रवि ने न वायु ने,
उसको सभी ये देखना चाहते हैं नग्न इस आयु में।
मुझको तो केवल आपकी अब आस प्रभु बचाइए,
पुरुषों की इस निर्लज सभा से मुझको आ ले जाइए।” (१२)
पापी ने प्रारम्भ खींचनी की साड़ी यज्ञकुमारी की,
करती रही वह प्रार्थना वाणी रुकी ना बेचारी की।
हरी ने लिया तब चीर में अवतार सबके देखते,
जितना भी खिंचता उससे कहीं अधिक लिपट जाता उसे। (१३)
जब थक गया कामी अधर्मी पापी साड़ी खेंचता,
भूमि गिरा फिर ना उठा मूर्छा में पड़ा अचेत सा।
यूँ लाज रक्षण कर प्रभु ने उतारा ऋण निज भाल से,
“जड़” चीर भी चेतन हुआ अवतार हेतु कृपाल से। (१४)