द्रौपदी चीर हरण
हे भीष्म पितामह गुरु द्रोण, माता कुन्ती के लाल सुनो
हे श्याम सुनो हे राम सुनो, ताण्डव वाले महाकाल सुनो।
निज पुत्रवधू को देख देख, पर करुणा जाग नही पाई,
धिक्कार तुम्हे हे धर्मपुत्र, मानवता याद नही आई।।
जो भरतवंश के रक्षक थे, थे श्रेष्ठ गुणी संसार के,
निज पत्नी दाँव लगा डाली, चौसर खेलों में हार के।
जो त्याग तपस्या मूरत थे, वो भीष्म पितामह आज कहाँ,
जो पाठ पढ़ाते रक्षा का, वो गुरु द्रोण महाराज कहाँ।
दुशासन केश पकड़ लाया, निर्वस्त्र किया दरबारों में,
हाथों पर हाथ धरे सबने, बोले ना कुछ अधिकारों में।
धर्मो की रक्षा प्रजापिता, सिंहासन बोल नहीं पाया,
दुशासन चीर उतारे पर, शोणित भी खोल नहीं पाया।
क्या गांडीव टूट गया स्वामी, अंबर-सी वो झंकार कहाँ,
जो पर्वत चूर चूर कर दे, हे आर्य वही टंकार कहाँ।
फिर आस लगाई कान्हा से, और ध्यान किया घनश्याम का,
बोली अब कर्ज चुका डालो, शोणित से भरे निशान का।
जो चोट लगी उँगली पर तो, साड़ी को चीर दिया मैंने,
पीड़ा भी तुझको थी किन्तु, आँखों का नीर दिया मैंने।
सुन करुण वेदना नारी की, आँखे नम थी भगवान की,
मेरे संग बोल उठो सारे, जय हो जय करुणनिधान की।
थक गया खींचते हार गया, साड़ी खोल नहीं पाया,
बेहोश गिरा वो भूमि पर, और कुछ भी बोल नहीं पाया।
माँ पांचाली और कान्हा ने, रच डाला नए निधान को,
यूं लाज बचाई नारी की, लौटाया स्वाभिमान को
रवि यादव, कवि
कोटा, राजस्थान
9571796024