द्रौपदी के अनुत्तरित प्रश्न
मैंने बहुत चाहा, कि भूल जाऊं सब कुछ,
भूल जाऊं निर्लज्ज दुःशासन के अधम हाथ,
बढ़े भरी सभा में, चीर मेरा हरने को,
और क्षमा कर दूं पितामह की, असहाय,
असमर्थ चुप्पी को,
अनदेखा कर दूं, विवेकशून्य पुत्रान्धता,
ये सब मैं किसी दिन कर भी पाऊं,शायद पार्थ,
तुमसे मैं क्या कहूं तुम ही कहो हे अर्जुन!
कौरवों से कहीं पूर्व, स्वयं अपने हाथों ही,
तुमने खंडित कर दी थी स्त्री की अस्मिता,
माता की आज्ञा के नाम पर स्वयं तुमने,
कैसे बांट दिया मुझको अपने ही भाइयों में?
उस दिन क्या सिर्फ़ -पांचाली बंटी थी?
पति का पुरुषत्व क्या बाक़ी बच पाया था?
धर्मराज, भीम और नकुल और सहदेव,
इन सबकी स्त्री थी -मैं ब्याहता नहीं थी,
ब्याहता तुम्हारी मैं- सिर्फ तुम्हारी थी,
स्वयंवर में जीत कर तुम मुझे लाए थे,
फ़िर कैसे धर्मराज खेल गये वो दांव, और ,
तुम कैसे सह पाए जुए का वो दांव,
सप्तपदी क्या इतनी निर्बल हो सकती है,
पत्नी की अस्मिता भी,
बचा नहीं सकती है।