द्रौपदी का रोष
महाभारत में माना पांडवो संग हुआ बुरा ज़रूर था
पर पांचाली ने आखिर क्या किया उसका क्या ही कुसूर था
एक चौसर की बाज़ी लगी जिसमे,.शकुनी ने सबको फंसा लिया
एक-एक कर सब छीन लिया, पांडवो को कर्ज़े में दबा दिया
सब हार के धर्मराज ने, बाज़ी पे द्रौपदी को लगा दिया
जो मान थी घर की, लक्ष्मी थी, उससे ही ऐसा देगा किया
धर्मराज हारे बाज़ी तो दुर्योधन ने निर्देश दिया
‘जा खींच लाओ सभा में उसको’, दुशासन को सन्देश दिया
भरी सभा में अधम नीच पांचाली को खींच के लाया
आखिर जेठ जी ऐसा करते क्यों ये उसको समझ न आया
अश्रु टपकते आँखों से सभा में दीखता न कोई अपना था
वीर मौन थे, पांडव शांत थे, ये अवश्य बुरा कोई सपना था
बोली फिर दुर्योधन से, ‘जेठ जी ये क्या है? क्या अनर्थ करते हो?
मैं तो बहन सी हूँ आपकी फिर मेरे संग ऐसा क्यों करते हो?’
‘चुप कर दासी! तू बहन नहीं अब तू संपत्ति हमारी है!
इशारो पे नाचने वाली तू अब दासी दुखियारी है!
गंवा दिया है धर्मराज ने, तुझको चौसर की क्रीड़ा में
वाह क्या आनंद आता है, देख तुझे इस पीड़ा में
अभी तो तुझको और सहना है और तमाशा होना है
तुझको अब न कुछ पाना है तुझको तो बस सब खोना है
दुशासन! इसको निर्वस्त्र कर मेरी जंघा पे बैठा दो
न झेल सके ये पांचो भाई ऐसी इनको व्यथा दो!’
जो सुना ये पांचाली ने तो सबको देख पुकारा
और कोई न आया आगे जब तब सबको उसने धिधकारा
‘मौन खड़े हो सारे क्या शर्म लाज कुछ रह गयी है!
क्या बढ़ती उम्र के साथ अक्ल भी सबकी ढेह गयी है?!
कहाँ गयी वह मान प्रतिष्ठा जिसको खोने से डरते थे ?
कहाँ गया वह गौरव जिसके लिए मारते मरते थे?
क्या मूक बधिर हो सारे? जो इसके कथन को सुन ना पाते हो?
क्या मति भ्रष्ट है? अंधे हो? जो इसके कर्म को देख न पाते हो?
अरे नायको! ओ वीरो! क्या यही तुम्हारी खुमारी है?
जिस बहु की रक्षा धर्म तुम्हारा आज वही बनी दुखियारी है! ‘
फिर पांडवो से बोली, ‘वाह स्वामियों! वाह पतियों! क्या रंग तुमने दिखलाया है !
इतने वर्षो की सेवा का क्या फल तुमने दिलवाया है!
अरे ओ विगोदर! कहाँ गयी वह गदा जिसपे इठलाते थे?!
कहाँ गया गांडीव वह अर्जुन?! जिसकी गाथा तुम बतलाते थे?!
कहाँ गयी वह शस्त्र विद्या जिसपे नकुल को अभिमान था?!
कहाँ गया वह सहदेव जो सबमे सबसे बुद्धिमान था ?!
धर्मराज का धर्मज्ञान आज कहाँ सिमट के रह गया?!
लगा दिया जो दांव पे मुझको, क्या धर्म स्तम्भ भी ढेह गया?
बोलो देवो मौन क्यों हो कहाँ शस्त्र दबा के बैठे हो?
राज काज तो गँवा दिया क्या अक्ल भी गँवा बैठे हो?
और तू दुर्योधन! ये न समझ की कर तू कुछ भी पायेगा!
मेरी रक्षा ये न करे पर वह गोविन्द मुरारी ज़रूर आएगा!
वह जो आया तो मेरा मान अवश्य बच जाएगा
पर तू सोच ले तेरा क्या होगा तू बहोत पछतायेगा!’
दुर्योधन बोला, ‘दासी तेरा मुख बहोत चलता है
देखे ज़रा हम भी तो की तेरा केशव क्या कर सकता है
चलो दुशासन! आगे बढ़ो इसके घमंड को चूर करो
और निर्वस्त्र कर सभा में इसको मेरे सामने मजबूर करो’
आस सबसे छूट गयी तो उसने दिल से भगवन को नमन किया
आये केशव दुर्योधन की सारी योजना का दमन किया
साड़ी खींचता दुशासन सोचता, ‘ये क्या नायाब साड़ी है
ख़तम न होती है ये क्या ये वाकई इतनी सारी है
इस नारी के तन को ढकती ये साड़ी मायावी है!
या जिसके तन से खींच रहा हूँ वह नारी मायावी है! ‘
खींच-खींच के थका नीच चूर हो गिरा धरा पे गश खाकर
क्या हासिल हुआ दुर्योधन को आखिर ये सब करवाकर
अपमान सहा पांचाली ने कहो क्या ही उसका दोष था
उसने तो दांव न खेला फिर उसपे कैसा रोष था
जो हुआ न भूला जा सकता न कभी भी भूला जाएगा
चौसर क्रीड़ा का ये दिन हमेशा काले अक्षर में लिखा जाएगा